शरीर-चेतना की कुछ अनुभूतियां

 

      तुम समान सटीकता के साथ कह सकते हो कि सब कुछ भगवान् हैं और कुछ भी भगवान् नहीं हैं । सब कुछ इस पर निर्भर है कि तुम समस्या को किस कोण से देखते हो ।

 

      उसी तरह से तुम कह सकते हो कि भगवान् निरन्तर सम्मति की अवस्था में हैं और यह भी कि वे शाश्वतकाल के लिए अपरिवर्तनशील हैं ।

 

     भगवान् के अस्तित्व को अस्वीकारना और स्वीकारना दोनों बातें समान रूप से सच हैं; लेकिन हर एक केवल अंशत: सत्य है । तुम सकारात्मकता और नकारात्मकता के ऊपर उठकर ही सत्य के निकट जा सकते हो ।

 

     इससे और आगे चलकर यह भी कहा जा सकता है कि संसार में जो कुछ होता है वह भागवत संकल्प का परिणाम है और यह भी कि इस संकल्प को ऐसे जगत् में अभिव्यक्त और प्रकट करना है जो इसका प्रतिवाद करे या इसे विकृत कर दे । व्यवहार में इन दोनों वृत्तियों में से एक, जो कुछ घटता है उसके प्रति शान्त समर्पण की ओर और दूसरी, इसके विपरीत, जो होना चाहिये उसकी विजय लाने के लिए निरन्तर संघर्ष की ओर ले जाती है । सत्य को जीने के लिए, तुम्हें इन दोनों वृत्तियों से ऊपर उठना, इन्हें मिलाना सीखना होगा ।

अप्रेल, १९५४

 

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      अपने विश्वास को बनाये रखो अगर यह तुम्हारे जीवन को बनाने में सहायता करे, लेकिन यह भी जानो कि यह केवल एक विश्वास है और दूसरे विश्वास भी तुम्हारे विश्वास के जितने अच्छे और सच हैं ।

अप्रैल, १९५४

 

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        सहन करना श्रेष्ठ भाव से भरपूर होना है; इसका स्थान पूर्ण समझदारी को लेना चाहिये ।

अप्रैल, १९५४

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      सत्य रैखिक नहीं, सार्वभौम है । यह आनुक्रमिक नहीं, समकालिक है । अत: इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता; इसे जीना होगा ।

अप्रैल, १९५४

 

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     अपने समस्त ब्योरों में जगत् जैसा है उसकी पूर्ण और समग्र चेतना पाने के लिए, आरम्भ से ही इन ब्योरों के बारे में कोई व्यक्तिगत प्रतिक्रिया, कोई आध्यात्मिक अभिरुचि, यहां तक कि वे कैसे होने चाहियें, इसका भान भी नहीं होना चाहिये । दूसरे शब्दों में, सर्वांगीण तादात्म्य द्वारा प्राप्त ज्ञान के लिए आवश्यक शर्त हैं--पूर्ण तटस्थता और निरपेक्षता के साथ पूर्ण स्वीकृति । अगर ब्योरे की कोई बात, चाहे वह कितनी छोटी क्यों न हो, तटस्थता से बच निकले तो वह तादाम्य से भी बच निकलती है । अत: सभी व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं से रहित होना सम्पूर्ण ज्ञान के लिए प्रारम्भिक आवश्यकता है--चाहे वे प्रतिक्रियाएं कितने भी उच्चस्तरीय हेतु के लिए क्यों न हों ।

 

     अत: विरोधाभासी रूप में हम कह सकते हैं कि हम किसी वस्तु को केवल तभी जान सकते हैं जब हमें उससे लगाव न हो या अधिक यथार्थ रूप से कहें तो जब हम स्वयं उसके लिए चिन्तित न हों ।

अप्रैल, १९५४

 

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      देव ने हमेशा, हर बार धरती को रूपान्तरित करने और नये जगत् की सृष्टि करने के इरादे से ही जन्म लिया है । लेकिन आज तक, अपने कार्य को सम्पन्न किये बिना ही उन्हें अपने शरीर को त्यागना पड़ा । और हमेशा यही कहा गया कि धरती तैयार नहीं थी और कार्य सम्पन्न करने के लिए मनुष्यों ने आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं किया ।

 

     लेकिन आविर्भूत देव की अपूर्णता ही उनके चारों तरफ के लोगों की पूर्णता को अनिवार्य बनाती है । अगर अवतीर्ण प्रभु आवश्यक प्रगति के लिए अनिवार्य पूर्णता को धारण किये रहते तो यह प्रगति उनके चारों तरफ के जड़- भौतिक जगत् की स्थिति पर आश्रित न होती । और फिर भी

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निःसंशय, इस परम विषयाश्रित जगत् में अन्योन्याश्रय निरपेक्ष है; अत: आविर्भूत भागवत सत्ता में अधिक ऊंचे स्तर की पूर्णता चरितार्थ करने के लिए समस्त अभिव्यक्ति में अमुक हद तक पूर्णता अनिवार्य होती है । परिवेश में अमुक पूर्णता की आवश्यकता मनुष्यों को प्रगति करने के लिए बाधित करती है, इस प्रगति की अक्षमता ही, वह चाहे जो भी हो, भागवत सत्ता को अपने शरीर की प्रगति के कार्य को तेज करने को प्रेरित करती है । अत: प्रगति की ये दोनों क्रियाएं एक साथ होती हैं और एक-दूसरे की पूरक हैं ।

अप्रैल, १९५४

 

शरीर-चेतना की नयी अनुभूतियां

 

     जब तुम अपने जीवन में पीछे की ओर देखो, तो प्राय: हमेशा तुम्हें यह अनुभव होता है कि अमुक- अमुक परिस्थितियों में, तुम अधिक अच्छा कर सकते थे, यद्यपि हर क्षण तुम आतरिक सत्य की आज्ञा का पालन कर रहे थे । इसका कारण यह है कि विश्व निरन्तर गति कर रहा है और जो पहले पूर्ण रूप से सत्य था आज अंशत: सत्य है । या अधिक यथार्थ रूप से कहा जाये तो, जिस क्षण वह कर्म किया गया था उसी क्षण वह जितना आवश्यक था अब उतना आवश्यक न होगा; उसके स्थान पर कोई और कर्म, अधिक उपयोगी होगा ।

अगस्त, १९५४

 

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     जब हम रूपान्तर की बात करते हैं तब भी इस शब्द का अर्थ हमारे लिये धुंधला-सा होता है । यह हमें ऐसा आभास देता है कि कुछ होने वाला है और परिणामस्वरूप सब कुछ ठीक होगा । धारणा अपने- आपमें प्राय: यह रूप ले लेती है : अगर हमारे सामने कठिनाइयां हैं तो कठिनाइयां विलीन हो जायेगी; जो बीमार हैं वे बीमारी से छुटकारा पा लेंगे, अगर शरीर दुर्बल और असमर्थ है, तो दुर्बलता और असामर्थ्य दूर हो जायेंगे;

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आदि- आदि । लेकिन जैसा मैंने कहा, यह सब बहुत अस्पष्ट है, यह केवल एक आभास है । हां, तो शारीरिक चेतना के बारे में एक विलक्षण बात यह है कि वह किसी चीज को पूरे विस्तार से और यथार्थता के साथ नहीं जान सकती जब तक कि वह उसे उपलब्ध करने के बिन्दु तक न पहुंच जाये । अत: जब रूपान्तर की प्रक्रिया स्पष्ट हो जायेगी, जब मनुष्य यह जान पायेगा कि क्रियाओं और परिवर्तनों के किस क्रम में पूर्ण रूपान्तर होगा--किस क्रम में, किस तरह यानी, कौन-सी चीजें पहले आयेंगी और कौन- सी बाद में--जब सब कुछ, पूर्ण ब्योरे में मालूम हो जायेगा तब वह इस बात का निश्चित सूचक होगा कि उपलब्धि का मुहूर्त निकट है, क्योंकि हर बार जब तुम्हें किसी ब्योरे की यथार्थ प्रतीति होती है तो इसका यह अर्थ होता है कि तुम उसे प्राप्त करने के लिए तैयार हो ।

 

     अभी के लिए, तुम सारी चीज का अन्तर्दर्शन पा सकते हो । उदाहरण के लिए, यह पूरी तरह निश्चित है कि अतिमानसिक प्रकाश के प्रभाव तले सबसे पहले शरीर-चेतना का रूपान्तर होगा; उसके बाद शरीर के सभी अवयवों के कर्म ओर सभी क्रियाओं पर संयम और प्रभुत्व में प्रगति होगी; उसके बाद, धीरे-धीरे यह प्रभुत्व क्रिया के मौलिक परिवर्तन के रूप में और फिर स्वयं अवयवों की रचना के परिवर्तन में बदल जायेगा । यह सब कुछ निश्चित है, यद्यपि इसका अन्तर्दर्शन पर्याप्त रूप से यथार्थ नहीं है । लेकिन अन्त में जो होगा--जब विभिन्न अवयवों का स्थान भिन्न शक्तियों, गुणों और स्वभावों की एकाग्रता के केन्द्र ले लेंगे तो उनमें से हर एक अपनी विशेष पद्धति के अनुसार कार्य करेगा--यह सारी चीज अभी तक केवल एक धारणा है और शरीर इसे अच्छी तरह नहीं समझ पाता, क्योंकि यह अभी तक सिद्धि से दूर है और शरीर पूरी तरह से केवल तभी समझ सकता है जब वह उसे प्राप्त कर सकने के बिन्दु पर हो ।

अगस्त, १९५

 

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      अतिमानसिक शरीर अलैंगिक होगा, क्योंकि तब पाशविक प्रजनन की आवश्यकता नहीं रहेगी ।

 

मानव आकार केवल अपने प्रतीकात्मक सौन्दर्य को बनाये रखेगा,

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और हम अब भी पुरुषों में जननेन्द्रिय और स्त्रियों में स्तनरान्धि जैसे कुछ कुरूप उभारों के विलोपन का अनुमान लगा सकते हैं ।

अगस्त,९५

 

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     शरीर केवल अपने बाहरी आकार, अपने अत्यन्त ऊपरी रंग-रूप में दिव्य नहीं है । यह आज विज्ञान की नयी-से-नयी खोजों के लिए भी उसी तरह भ्रामक है जैसा भूतकाल की आध्यात्मिकता के लिए था ।

अगस्त, १९५

 

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     हे परम सद्वस्तु, हे अतिमानसिक सत्य, यह शरीर पूरी तरह तीव्र कृतज्ञता से स्पन्दित हो रहा है । तूने इसे एक-के-बाद-एक, वे सभी अनुभूतियां प्रदान की हैं जो इसे एकदम निश्चित रूप से तेरी ओर ले जा सकती हैं । यह एक ऐसे बिन्दु पर आ गया है जहां तेरे साथ तादात्म्य एकमात्र वाच्छनीय ही नहीं बल्कि एकमात्र सम्भव और स्वाभाविक वस्तु है ।

 

    मैं इन अनुभूतियों का भला किस तरह वर्णन करूं जो दो विरोधी छोरों पर हैं?  एक छोर से मैं कहूंगी :

 

   "प्रभो, सचमुच तेरे निकट होने के लिए, तेरे योग्य बनने के लिए, व्यक्ति को अपमान के चषक-पर-चषक खाली करने होंगे और फिर भी अपमानित नहीं अनुभव करना होगा । व्यक्ति का अपमान उसे सचमुच मुक्त करता और केवल तेरा बनने के लिए तैयार करता है ।''

 

     और दूसरे छोर से मैं कहूंगी :

 

    ''प्रभो, सचमुच तेरे निकट होने के लिए, सचमुच तेरे योग्य बनने के लिए व्यक्ति को मानव मूल्यांकन के शिखर पर पहुंचना होगा और फिर भी गौरवान्वित अनुभव न करना होगा । जब मनुष्य किसी को भगवान् कहता है केवल तभी उसे अपनी अक्षमता का अनुभव होता है और तेरे साथ पूरी तरह एक होने की आवश्यकता का अनुभव करता है ।''

 

     ये दोनों युगपत् अनुभूतियां हैं : एक दूसरी को मिटा नहीं देती, बल्कि इसके विपरीत, वे एक दूसरे की पूरक मालूम होती हैं और इस तरह

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अधिक तीव्र हो जाती हैं । इस तीव्रता में अभीप्सा बहुत अधिक बढ़ जाती है, और उसके प्रत्युत्तर में तेरी उपस्थिति स्वयं कोषाणुओं में प्रत्यक्ष बन जाती है, जो शरीर को ऐसे बहुरंगी कैलिडोस्कोप का आभास देती है जिसमें निरन्तर गति करते असंख्य ज्योतिर्मय कण किसी अदृश्य और सर्वसमर्थ परम 'हाथ' द्वारा भव्य रूप में पुनर्व्यवस्थित होते हैं ।

अगस्त,९५४

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